08 मार्च 2009

झांक कर देखिये- हर कोई डूबा है भ्रष्टाचार मे

सरकारी खजाने से निकला एक रुपए का सिक्का घिसता-घिसता जब किसी गरीब की हथेली तक पहुंचता है तो वह पंद्रह पैसे रह जाता है- लेकिन इसे भ्रष्टाचार के सरकारी आंकड़े की तरह देखने की जगह गरीब आदमी के साथ की जा रही ऐसी नाइंसाफी की तरह देखना चाहिए जो पहले उसका सम्मान लेती है फिर उसकी जान लेती है। सिर्फ सरकारी सिक्का ही आदमी तक आते-आते नहीं घिसता है, गरीब आदमी भी सरकार तक पहुंचते-पहुंचते घिस जाता है, उसकी औकात पंद्रह पैसे भर की भी नहीं रह जाती। रोजगार गारंटी योजना लागू हुई तो वो भ्रष्टाचार की गारंटी में बदल गई। गरीब आदमी के लिए सस्ता अनाज मुहैया कराने की सरकारी योजना को घपले के घुन पहले से खाते रहे हैं। दरअसल अब ऐसा लगने लगा है कि सरकार जब गरीब आदमी का नाम लेती है तो अफसरों और बाबुओं की बांछें खिल जाती हैं। वो जान जाते हैं कि उनके सामने एक ऐसा शिकार है जिसकी चीख दिल्ली में बैठे लोग नहीं सुनेंगे, सुनेंगे भी तो उसकी परवाह नहीं करेंगे। अगर हम वाकई किसी योजना को लेकर ईमानदार हैं, वाकई चाहते हैं कि इस देश के गरीब आदमी का भला हो तो नई योजना बनाने से पहले पुरानी अफसरशाही बदलनी होगी। जब पंचायती राज कानून लागू हुआ तो लगा कि विकास की योजनाओं में स्थानीय भागीदारी लोगों की किस्मत बदलेगी। लेकिन अब भी ऊपर से भ्रष्टाचार की उंगली पकड़ कर उतरा हुआ मुलायम सिक्का जब किसी मुखिया की हथेली पर गिरता है तो उसे भी ऊपर की तरफ खींच लेता है। हालांकि इस शिकायत के अपवाद हैं और वही भरोसा दिलाते हैं कि ये सूरत बदलेगी। लेकिन जब तक वो बदलती नहीं, मौजूदा सूरत को पहचानना जरूरी है।

रामगोपाल जाट