20 अक्तूबर 2009

दीपावली की शुभकामनाएँ

दीपावली की शुभकामनाएँ

08 अक्तूबर 2009

गांधीजी की रचना 'हिन्द स्वराज'

गांधीजी की रचना 'हिन्द स्वराज'

निपट देहाती औसत हिन्दुस्तानी की खोपड़ी, चमकती हुई, कभी शरारतपूर्ण तो कभी करुणामय ऑंखें, इकहरी देह के बावजूद सिंह-शावक की सी बौद्धिक चपलता, बेहद पुराने फैशन की कमरखुसी घड़ी, एक सदी पुराने फैशन का चश्मे का फ्रेम, गड़रिए की सी लाठी, सड़क किनारे बैठे चर्मकार के हाथों सिली सेंडिलनुमा चप्पलें, अधनंगा बदन-ये भारत के सबसे महान् योद्धा के कंटूर हैं, जिनसे सात समुन्दर पार भी सूरज अस्त नहीं होने वाले ब्रिटिश साम्राज्यवाद के हुक्मरानों ने धोखा खाया.
अपने बचपन से मुझे गांधी कभी बूढ़े, लिजलिजे या तरसते नहीं लगे। दहकते प्रौढ़ अंगारों के ऊपर पपड़ाई राख जैसा उनका पुरुष व्यक्तित्व बार-बार लोगों को प्रश्नवाचक चिन्ह की कतार में खड़ा करता रहा। प्रचलित समझ के विपरीत मैंने गांधी को ऋषि, संत, मुनि या अवतार जैसा नहीं देखकर करोड़ों भारतीय सैनिकों के युयुत्सु सेनापति के रूप में देखा है।

मुझे गांधी के अन्य रूपों में न तो दिलचस्पी रही है और न ही वे मेरी गवेषणा के विषय बने हैं। गांधी की याद को पुन: परिभाषित करना साहसिक, रूमानी और मोहब्बत भरा काम है। यह तो सरल है कि उन्हें प्रचलित अर्थ में ही समेटा जाए और बार-बार गांधी को ऐसी सोहबत में बिठाया जाए जिससे उन्हें उद्दाम समुद्र या तेज तरंगों में बहते किसी महानद के मुकाबले छोटा सा तालाब बनाया जाए. इस तरह के गांधी-यश से सडांध की बू आने लगी है. लोग गांधी क्लास में पास होने, एक गाल पर थप्पड़ खाने के बाद गांधी शैली में दूसरा गाल सामने करने और सुसंस्कृत जीवन के हर छटा-विलोप में गांधी दर्शन दिखाकर उसका इतना मजाक उड़ा चुके हैं कि इस बूढे आदमी के साथ रहने में मन वितृष्ण हो जाता है. भारतीय लोकतंत्र के जनवादी आन्दोलन के संदर्भ में मिथकों के नायक राम और कृष्ण के बाद कालक्रम में तीसरे स्थान पर गांधी ही खड़े होते हैं, कई अर्थों में उनसे आगे बढ़कर उन्हें संशोधित करते हुए. इस देश में ऐसा कोई व्यक्ति पैदा नहीं हुआ जिसने गांधी से ज्यादा शब्द बोले हों, अक्षर लिखे हों, सड़कें नापी हों, आन्दोलनों का नेतृत्व किया हो, बहुविध आयामों में महारत हासिल की हो और फिर लोक-जीवन में सुगंध, स्मृति या अहसास की तरह समा गये हों. शंकराचार्य, अशोक, बुद्ध, अकबर, तुलसीदास, कबीर जैसे अशेष नाम हैं जो भारतीय-मानस की रचना करते हैं. लेकिन गांधी केवल मानस नहीं थे. कृष्ण के अतिरिक्त हिन्दुस्तान के इतिहास में गांधी ही हुए जो प्रत्येक अंग की भूमिका और उपादेयता से परिचित थे. ऐसे आदमी का किंवदन्ती, तिलिस्मी या अजूबा बन जाना भी सम्भव होता है. मोहनदास करमचन्द गांधी को इस अज्ञान की साजिश से बचाना भी एक सामूहिक कर्तव्य है. मैं गांधीवादी नहीं हूँ. यह कहने में मैं सत्य के अधिक निकट होता हूँ. गांधी मेरी पसंद की अनिवार्यता या नियति नहीं हैं. उनके विचारों की तह में जाना, उनके प्रखर कर्मों के ताप झेलना और उनका वैचारिक परिष्कार करना शायद किसी के वश में नहीं है. गांधी का पुनर्जन्म यदि हो जाये तो शायद उनके वश में भी नहीं. ऐसा लगता है कि गांधी एक घटना की तरह पैदा हो गये और अस्सी वर्ष के लम्बे जीवन में लगातार विद्रोह करते-करते उल्कापात की तरह गिरे. गांधी भारत की आधी बीसवीं सदी का पर्याय रहे हैं. उसके पूर्वार्द्ध के कम से कम आखिरी तीस वर्ष लिहाफ की तरह हिन्दुस्तान के सियासी, बौद्धिक और सामाजिक जीवन को गांधी ही ओढ़े रहे. यह व्यक्ति अन्तर्राष्ट्रीय इतिहास का एक फेनोमेना है जिसको समझने की कोशिश करना धुएँ को अपनी बाहों में भरना है 1909 में लंदन से दक्षिण अफ्रीका लौटते हुए पानी के जहाज पर सम्पादक पाठक संवाद के रूप में गांधी ने एक कालजयी कृति लिखी. उस समय के हिन्दुस्तानियों के हिंसावादी पंथ और उसी विचारधारा वाले दक्षिण अफ्रीका के एक वर्ग को दिये गए कथित जवाब में लिखी पुस्तक ‘हिन्द स्वराज’ है. यह एक लेखमाला के रूप में ‘इण्डियन ओपिनियन’ नामक पत्र में गुजराती में दक्षिण अफ्रीका में प्रकाशित हुई.
दरअसल मुकम्मिल आज़ादी की कल्पना के पहले गांधी ने 1891 से 1894 के बीच दक्षिण अफ्रीका में रहने वाले भारतीयों की तरफ से लिखी गई कई याचिकाओं में आज़ादी का खुद के विचार का खाका खींचा था. हो सकता है ‘हिन्द स्वराज’ उसका संशोधित रूप हो. इस पुस्तक के भारत में गुजराती संस्करण के प्रकाशित होते ही बम्बई में ब्रिटिश सरकार ने जब्त कर लिया था. जवाहरलाल नेहरू ने बाद में इस किताब में व्यक्त विचारों को भ्रम पैदा करने वाले और अव्यावहारिक कहकर उससे असहमति व्यक्त की थी. लेकिन गांधी ने स्वयं गुजराती ‘हिन्द स्वराज’ का अंग्रेजी अनुवाद किया और प्रकाशित कराया. उसे भी ब्रिटिश सरकार ने आपत्तिजनक बताकर जब्त कर लिया. 1915 में महात्मा गांधी जब दक्षिण अफ्रीका से भारत लौटे तो उन्होंने सबसे पहले ‘हिन्द स्वराज’ को फिर से प्रकाशित करवाया. तब सरकार ने इसे जब्त नहीं किया. ‘हिन्द स्वराज’ को गांधी ने आधुनिक सभ्यता की समालोचना के रूप में प्रचारित किया था. उन्होंने लगातार यही कहा कि पश्चिमी सभ्यता के संबंध में मेरे मूलभूत विचार यही हैं जो इस पुस्तक में उन्होंने व्यक्त किये हैं.
उन्होंने साफ कहा था कि “ यह किताब ऐसी है कि यह बालक के हाथ में भी दी जा सकती है. यह द्वेष-धर्म की जगह प्रेम-धर्म सिखाती है. हिंसा की जगह आत्म बलिदान को रखती है. यह पशुबल से टक्कर लेने के लिए आत्मबल को खड़ा करती है.” ‘हिन्द स्वराज’ में भारतीय स्वतंत्रता का जनपथ विस्तृत है. आज़ादी के साठ वर्ष बाद जब हम इस किताब के माध्यम से संघर्षशील हिन्दुस्तान की आज़ादी की जद्दोजहद को देखते हैं तो हमें ऐसा लगता है कि महापुरुषों की भीड़ में गांधी ध्रुवतारे की तरह अकेले निर्विकार लेकिन हठधर्मी मुद्रा में मील का पत्थर बनकर खड़े हैं. कम से कम आज़ादी के मिलने के तीस बरस पहले से गांधी और हिन्दुस्तान एक-दूसरे के समानार्थी रहे हैं. इस निष्कलंक कृति के माध्यम से गांधी ने आज़ादी की लड़ाई के सभी योद्धाओं से अलग हटकर कुछ बुनियादी सवाल हमारी चेतना की छाती पर छितराये हैं. ये सवाल आज भी वैसे ही मुँह बाए खड़े हैं. ‘हिन्द स्वराज’ महात्मा गांधी के नैतिक और राजनीतिक विचार ऊर्ध्व का भी शिखर है जिसकी बुनियाद (तत्कालीन) आधुनिक सभ्यता की कठोर समीक्षा में है. लगभग बौद्धिक प्रतिहिंसा की शक्ल में गांधी ने दक्षिण अफ्रीका में पुस्तिका का अंग्रेजी संस्करण भी प्रकाशित कराया. उन्होंने एक प्रति तॉल्सतॉय को भी भेजी. 20 अप्रेल 1910 को अपनी डायरी में तॉल्सतॉय ने लिखा “ आज सभ्यता के बारे में गांधी को पढ़ा. अद्भुत है.” जिन गोखले को गांधी अपना राजनीतिक गुरु कहते थे, उन्होंने 1912 में ही ‘हिन्द स्वराज’ को हड़बड़ी में लिखी गई भोंडी किताब करार देते हुए यही कहा कि आगे चलकर गांधी इसे खुद खारिज कर देंगे. नवजीवन ट्रस्ट द्वारा प्रकाशित ‘हिन्द स्वराज’ की भूमिका में महादेवदेसाई ने लिखा था: “ गोखलेजी 1912 में जब दक्षिण अफ्रीका गये, तब उन्होंने वह अनुवाद देखा. उन्हें उसका मजमून इतना अनगढ़ लगा और उसके विचार ऐसे जल्दबाजी में बने हुए लगे कि उन्होंने भविष्यवाणी की कि गांधीजी एक साल भारत में रहने के बाद खुद ही पुस्तक का नाश कर देंगे.” लेकिन अपने विचारों को दिन प्रतिदिन के आधार पर उत्तरोत्तर विकसित करने वाले महात्मा गांधी ने आश्चर्यजनक रूप से वर्षों बाद भी ‘हिन्द स्वराज’ के पाठ को संशोधित तक नहीं किया. सिवाय इसके कि 'बेसवा' (वेश्या) नामक शब्द को उन्होंने अपनी एक अंग्रेज महिला मित्र (शायद एनी बेसेंट) के कहने पर हटाने की सहमति दी थी. “ इसकी अनेक आवृत्तियां हो चुकी हैं; और जिन्हें इसे पढ़ने की परवाह है उनसे इसे पढ़ने की मैं ज़रूर सिफ़ारिश करूंगा. इसमें से मैंने सिर्फ एक ही शब्द-और वह एक महिला मित्र की इच्छा को मानकर-रद्द किया है; इसके सिवा और कोई फेरबदल मैंने इसमें नहीं किया है.”
गांधी कहते हैं कि इस पुस्तक में वर्णित विचार उनके हैं भी और नहीं भी. वे इसलिए उनके हैं क्योंकि गांधी उनके अनुरूप आचरण करना चाहते हैं.
1938 में प्रसिद्ध अंग्रेज विद्वान मिडिलटन मरे ने इस कृति को एक आध्यात्मिक क्लासिक करार देते हुए उसे आधुनिक युग की सबसे महत्वपूर्ण पुस्तक घोषित किया। लार्ड लोथियान ने कहा “यही वह पुस्तक है जिसमें पूरा गांधीवाद छन छन कर उतर गया है।” ‘इंडियन ओपिनियन’ के गुजराती पाठकों के लिए ‘हिन्द स्वराज’ एक भूचाल की तरह था क्योंकि उसकी भाषा बेलाग और तर्क बेहद धारदार थे. पुस्तक के लिखने के दो वर्ष पूर्व ही गांधी ने दक्षिण अफ्रीका में निष्क्रिय प्रतिरोध का आंदोलन शुरू किया था. वह आंदोलन मोहनदास गांधी के आंतरिक व्यक्तित्व में उठ रहे ज्वालामुखी के प्राथमिक संकेतों संवेगों की तरह था. ‘हिन्द स्वराज’ गांधी के राजनीतिक अस्तित्व का पहला पुख्ता और विश्वसनीय पड़ाव था. कहने को तो वह उनको इंग्लैंड में मिले हिंसक आंदोलनों के समर्थकों से हुई असहमतियों का प्रतिक्रियात्मक ब्यौरा था लेकिन अचानक उसमें पश्चिम की पूरी भौतिकवादी सभ्यता को लेकर एक उभरते हुए राजनीतिक विचारक के तेवर समाहित हो गये थे. इंग्लैंड के लोगों या मान्य परंपराओं के विरुद्ध गांधी का हमला भोंडा नहीं था क्योंकि उन्हें अंग्रेज कौम की अच्छाइयों का भी ज्ञान था. ‘हिन्द स्वराज’ साम्राज्यवादी मान्यताओं के परखचे उखाड़ने की एक ऐसी आधुनिक मानव मशीन का उत्पाद है, जो मशीन को मानव के लिए बेहद गैर जरूरी मानता हो, जब तक कि उसका मशीनों पर कोई निर्णयात्मक नियंत्रण नहीं हो. अंगरेजी भाषा का कम्युनिकेशन (प्रेषण) में इस्तेमाल करने में गांधी को (मातृभाषा गुजराती में लेकिन ज्यादा) इसलिए महारत हासिल होती जा रही थी क्योंकि ‘आधी गुप्त, आधी प्रकट शैली’ (half concealing, half revealing) के छद्म इस भाषा में बहुत हैं. शायद इसलिए भी गांधी कहते हैं कि इस पुस्तक में वर्णित विचार उनके हैं भी और नहीं भी. वे इसलिए उनके हैं क्योंकि गांधी उनके अनुरूप आचरण करना चाहते हैं. इसलिए वे उनके जीवन का अंग भी हैं. वे विचार गांधी के नहीं भी हैं क्योंकि गांधी मौलिकता का दावा नहीं करते. गांधी कहते हैं “ जो विचार यहां रखे गये हैं, वे मेरे हैं और मेरे नहीं भी हैं. वे मेरे हैं, क्योंकि उनके मुताबिक बरतने की मैं उम्मीद रखता हूं; वे मेरी आत्मा में गढ़े-जड़े जैसे हैं. वे मेरे नहीं हैं, क्योंकि सिर्फ मैंने ही उन्हें सोचा हो सो बात नहीं. कुछ किताबें पढ़ने के बाद वे बने हैं. दिल में भीतर ही भीतर मैं जो महसूस करता था, उसका इन किताबों ने समर्थन किया.” ‘हिन्द स्वराज’ में वर्णित विचार उन बहुत से मनीषियों की पुस्तकों को पढ़ने के बाद किसी कड़ाह में उबाले गये रसायन के घोल की तरह गांधी की आत्मा की परतों को चीरकर समा गये थे. अपनी पुस्तक के अंत में गांधी कुछ पठनीय कृतियों की सिफारिश भी करते हैं. इनमें प्लेटो, मैजिनी, रस्किन, थोरो, हेनरी मेन, दादाभाई नौरोजी, एडवर्ड कारपेन्टर, तॉल्स्तॉय और मैक्स नार्दू वगैरह शामिल हैं.
मूलत: गुजराती में लिखित कृति के अंत में गांधी ने तॉल्सतॉय, थोरो, रस्किन, मैजिनी, एडवर्ड कारपेंटर, प्लेटो, दादाभाई नौरोजी, रमेशचन्द्र दत्त जैसे लेखकों की रचनाओं के कुछ अंश भी उद्धृत किये। इसका उद्देश्य अपने स्वानुभूत सत्यों के साथ युग-प्रवर्तक विचारकों के जीवन दर्शन का तादात्म्य स्थापित करना था. उसमें ‘पाठक’ और ‘सम्पादक’ के बीच हुए बीस वार्तालापों का विवरण है. उसमें भारत-इंग्लैंड, सभ्यताएँ, स्वराज, हिन्दू-मुस्लिम एकता, कानून और शिक्षा आदि ज्वलंत विषयों पर लेखक के बहुचर्चित विचारों का समावेश है. भूमिका में राजगोपालाचारी ने लिखा, “ अपनी मातृभूमि के लिए कोई पुनर्निर्माण या आशा करना व्यर्थ है, जब तक हम शक्ति की उसके हर रूप में पूजा करते रहेंगे और हिंसा के स्थान पर अन्य किसी आधार पर अपनी कार्यविधि प्रस्थापित नहीं कर लेंगे. हिंसा के सिद्धान्त का परित्याग देश की वर्तमान परिस्थिति के संदर्भ में आज पहले से कहीं आवश्यक है.” अपने जीवन के शेष चालीस कर्मठ वर्षों में गांधी का वैचारिक व्यक्तित्व ‘हिन्द स्वराज’ में व्यक्त अपनी अवधारणाओं का परिमार्जन और परिशोधन ही करता रहा. उनके राजनीतिक, आर्थिक, शैक्षणिक और आध्यात्मिक चिन्तन के प्रेरणा तत्व ‘हिन्द स्वराज’ में मौजूद थे‘हिन्द स्वराज’ की भूमिका में गांधी ने बेलाग होकर स्वीकार किया है कि यद्यपि कृति में उनके ही विचार हैं, फिर भी वे मौलिकता का दावा नहीं करते. गांधी के अनुसार भारतीय दर्शन के अतिरिक्त तॉल्स्तॉय, रस्किन, थोरो और एमर्सन जैसे लेखकों का उन पर गहरा असर रहा है. तॉल्स्तॉय को तो उन्होंने अपना गुरु ही घोषित किया है. उन्होंने लिखा कि पुस्तक को पढ़ते वक्त पाठक को इन महान लेखकों की कृतियों में व्यक्त विचारों से समानता नजर आएगी. श्लेष, यमक और अन्योक्ति जैसे अलंकारों की छटा बिखेरते हुए गांधी ने कहा कि पुस्तक में उनके विचार इस अर्थ में हैं कि वे उन पर आचरण करेंगे. ये इस अर्थ में उनके नहीं भी हैं क्योंकि ये विचार मौलिक नहीं हैं बल्कि कई महान लेखकों की अनेक पुस्तकों को पढ़ने के बाद सूत्रबद्ध हुए हैं. गांधी को यह आत्मविश्वास था कि भारत में ऐसे बहुतेरे लोग होंगे, जो उनके विचारों से इत्तफाक रखते होंगे और उन्हें मौजूदा पश्चिमी सभ्यता से कोफ्त होगी. उन्होंने यह भी कहा कि भारत ही क्यों यूरोप में ही हजारों ऐसे लोग हैं जिन्हें पश्चिमी सभ्यता के घातक तेवरों से पूरी तौर पर परहेज है. करोड़ों हिन्दुस्तानी और लाखों यूरोपीय वे बौद्धिक मतदाता थे जिनके वैचारिक निर्वाचन क्षेत्र में जाने से गांधी अपने चुने जाने के प्रति आश्वस्त थे ही, अपने प्रभाव क्षेत्र को इन प्राथमिक और बुनियादी वैचारिक मतदाताओं के समर्थन से बढ़ाना भी जानते थे. यहां पर गांधी अपने तेज दिमाग के सयानेपन (shrewdness) का भी इस्तेमाल करते हैं. वे तत्कालीन यूरोप की जनता और पश्चिमी सभ्यता के रसूखदार शासकों में भेद करते हैं. गांधी जानते थे कि ब्रिटेन के उपनिवेशवाद और साम्राज्यवाद तथा रूस की जारशाही की धमाचौकड़ी में जॉन रस्किन और तॉल्स्तॉय जैसे विचारकों की आवाज तूती की तरह बना दी गई है, जबकि ऐसे मानस-पुत्र ही यूरोपीय सभ्यता के वास्तविक प्रज्ञा-पुरुष हैं. इसलिए आधुनिक सभ्यता के खिलाफ संघर्ष का गांधी-आव्हान केवल एक भारतीय की मौलिक चुनौती नहीं है, बल्कि वह यूरोप के प्रसिद्ध विचारकों के चिंतन-निचोड़ पर आधारित भारतीय शैली में पगी हुई बौद्धिक रणनीति का कायिक प्रदर्शन है. यह कूटनीति किसी लोकप्रिय नेता के कार्यालय के टकसाल में गढ़ा हुआ सिक्का नहीं था बल्कि उसे मोहनदास करमचंद गांधी जैसे कद्दावर काठी के बौद्धिक नेता की आत्मा की धमन भट्ठी में पकाकर मूल्य-युद्ध में इस्तेमाल किया गया था.
परिशिष्ट में संदर्भित तॉल्स्तॉय की 4, थोरो की 2 और रस्किन, प्लेटो तथा मैजिनी की एक-एक किताब में भारतीय जनजीवन का कोई विवरण या वर्णन नहीं है। ऐसे में भी जो विर्मश गांधी उपस्थित करते हैं, वह मनुष्य मात्र की समस्याओं के लिए उपजता है, केवल भारत के लिए नहीं. यह जरूर है कि गांधी रमेशचन्द्र दत्त की ‘इकॉनॉमिक हिस्ट्री ऑफ इण्डिया’, हेनरी मेन की ‘विलेज कम्युनिटीज’ और एडवर्ड कारपेन्टर की ‘सिविलाइजेशन: इट्स कॉज़ एण्ड क्योर’ को भी संदर्भित करते हैं, जिनसे भारतीय समस्याओं को बूझने में गांधी को मदद मिली है. तॉल्स्तॉय ने उन्हें कुंजी दी थी कि लेखक का मकसद होना चाहिए कि हम कैसे जिएं. इस साधारण से वाक्य में बीजगणित का जो सूत्र है, उसे ही गांधी ने धरती की उर्वर कोख का बीज बनाकर एक वैचारिक वटवृक्ष दुनिया के हवाले किया. इसलिए ‘हिन्द स्वराज’ को केवल भारतीय समस्याओं के संदर्भ का एक राष्ट्रीय दस्तावेज करार दिए जाने से गांधी सबसे महान आधुनिक भारतीय नियामक के रूप में भले ही पेटेंट कर दिए जाएं, लेकिन उससे ‘हिन्द स्वराज’ की हेठी होती है. विचार फलक पर यह पुस्तक नई दुनिया की नई बाइबिल की तरह नैतिक है

‘हिन्द स्वराज’ लेकिन हिंसक क्रांतियों के प्रस्तोताओं और प्रवक्ताओं को दिया गया अहिंसक ढांचे का उत्तर मात्र नहीं है और न ही वह गांधी के द्वारा चुनिंदा पढ़ी गई किताबों की शिक्षाओं के निचोड़ का अंगीकार दर्शन है. पुस्तक के क्रमिक विकास के साथ साथ गांधी में दक्षिण अफ्रीका प्रवास के पिछले चौदह वर्षों के संघर्ष के धरातल पर खड़े होकर उस प्रखर तार्किक दर्शन के कंटूर उगने लगते हैं, जो आगे चलकर पूरी पश्चिमी सभ्यता को जड़ से उखाड़ फेंकने का पूरी दुनिया में सबसे व्यापक और महत्वपूर्ण आव्हान करता है. एक ऐसा आव्हान जो उन करोड़ों कंठों का नित्य गायन है, जो उस सभ्यता के दंश से पराजित होने के बावजूद शायद क्लैव्य की मुद्रा में मर जाते-यदि गांधी इस दुनिया में नहीं आते. इसके पहले गदहपचीसी की उम्र में ही गांधी ने एक गंभीर विचारक की शक्ल ओढ़ते हुए दक्षिण अफ्रीका में पश्चिमी साम्राज्यवादी सभ्यता की जी भरकर निंदा की थी कि वह आधुनिक सभ्यता धन दौलत के पीछे पागलों की तरह दौड़ने वाली और धन दौलत को उड़ाने और इकट्ठा करने के बावजूद मनुष्य की आत्मा और उसके जीवन की बेहतरी का सबसे बड़ा रोड़ा है. एक दशक बाद पेरिस में हुए भयानक अग्निकांड की गांधी ने उसी तरह निंदा की थी जैसे लिस्बन में हुए भूकंप की व्यापारिक पृष्ठभूमि की बुराई तॉल्सतॉय ने की थी. गांधी को महसूस हुआ कि आधुनिक सभ्यता की चकाचौंध के नीचे एक त्रासदी छिपी हुई है. उन्होंने कहा कि पूंजीवादी प्रवृत्तियों की अंधी दौड़ में सब कुछ व्यतीत कर उसे पूरी तौर पर भुला दिया जाता है. विज्ञान की तरक्की और सभ्यता की उपलब्धियों वगैरह से संघर्षरत मानवता को कुछ भी हासिल होने वाला नहीं है. गांधी के निष्कर्ष उनके पूर्ववर्ती यूरोपीय विचारकों से प्रभावित होने के बावजूद काफी अलग और मौलिक भी थे. वे कहते थे- हम सब इस धरती पर यायावर तीर्थ यात्रियों की तरह हैं. हम अनंत आत्माएं हैं परंतु जीवन की परिवीक्षा अवधि में हैं. इसलिए जो कुछ अस्थायी है, उसके उत्कर्ष का कोई भी सफल सिद्धांत स्थायित्व के समीकरण को बूझने में असमर्थ होगा. 10. ‘हिन्द स्वराज’ गांधी वांग्मय की अकेली पुस्तक है, जिसके मूल गुजराती भाष्य का गांधी ने स्वत: अंग्रेजी में अनुवाद किया था. अपनी ‘आत्मकथा’ तक को बापू ने अनुवाद के लिए अपने ‘बॉसवेल’ महादेव देसाई के भरोसे छोड़ दिया था. इस अर्थ में ‘हिन्द स्वराज’ बापू के लिए ‘आत्मकथा’ से भी बढ़कर उनका विश्वसनीय फलसफा है बल्कि व्यवहार्य ‘टेन कमांडमेंट्स’ है. अनुवाद के सामने यह संकट होता है कि उसमें मूल आलेख की आत्मा नहीं भी उतरती है. लेकिन यह फिकरा ‘हिन्द स्वराज’ पर लागू नहीं होता. ‘हिन्द स्वराज’ का अंगरेजी पाठ गांधीकृत होने से मूल पाठ ही है. गांधी ने इसीलिए अनुवाद कराने का जोखिम नहीं उठाया होगा. अंग्रेजी भाषा और मुहावरों में लगभग वही बात लिखी है जो गुजराती के मूल कथन में है. संभवत: इसलिए किसी द्विभाषी पाठक ने भी यह जहमत नहीं उठाई होगी कि वह इस बात को परखे कि क्या गांधी का अनुवाद मूल पाठ का पुनर्लेखन है अथवा अनुवाद मात्र. अंग्रेजी का भाष्य ही तॉल्स्तॉय, रोम्या रोलां, जवाहरलाल नेहरू और राजाजी वगैरह ने पढ़ा था और टिप्पणियां की थीं. गांधी खुद इसी अंग्रेजी पाठ को पूरे जीवन अपने विचार प्रवर्तन में खंगालते रहे थे.
यह पुस्तक एक साथ इतनी सरल और जटिल है कि इसके विरोधाभास को समझने में दुनिया की कई पीढ़ियां व्यतीत हो गईं और शोध अब भी जारी है.
‘हिन्द स्वराज’ के अंग्रेजी अनुवाद की भूमिका में गांधी ने 20 मार्च 1910 को जोहानेसबर्ग में लिखा- “ ‘हिन्द स्वराज’ का अंग्रेजी अनुवाद जनता के सामने पेश करते हुए मुझे कुछ संकोच हो रहा है। एक यूरोपीय मित्र के साथ इसकी विषय-वस्तु पर मेरी चर्चा हुई थी। उन्होंने इच्छा प्रकट की कि इसका अंग्रेजी अनुवाद किया जाये; इसलिए अपने फुरसत के समय में, मैं जल्दी-जल्दी बोलता गया और वे लिखते गये। यह कोई शब्दश: अनुवाद नहीं है। परन्तु इसमें मूल के भाव पूरे-पूरे आ गये हैं। कुछ अंग्रेज मित्रों ने इसे पढ़ लिया है और जब रायें मांगी जा रही थीं कि पुस्तक को प्रकाशित करना ठीक है या नहीं, तभी समाचार मिला कि मूल पुस्तक भारत में जब्त कर ली गई हैं. मूल में जो अनेक खामियां हैं उनका मुझे खूब ज्ञान है. अंग्रेजी अनुवाद में भी इनका और साथ ही दूसरी बहुत-सी भूलों का आ जाना स्वाभाविक है क्योंकि मैं मूल के भावों को सही रूप से अनुवादित नहीं कर सका हूं.” ‘हिन्द स्वराज’ वह बीज है जिसने गांधी का विचार-वृक्ष धरती की छाती पर उगाया. उनके विचार- दर्शन को बूझने के लिए इस पुस्तक के प्रस्थान बिंदु को समझ लेने से पाठक को भटकाव नहीं होता क्योंकि गांधी-दर्शन की बुनियाद वाकई इसी पुस्तक में है. इसलिए वे सभी तत्व इस पुस्तक में छितराए हुए हैं, जो अलग अलग भी अपने पोषक के विचार दर्शन के अलग अलग वृक्षों की तरह भी विकसित कहे जा सकते हैं. शोधकर्ता यदि गांधी चिंतन को व्यवस्थित और क्रमिक ढंग से विवेचित करना चाहें, तो उन्हें गांधी पाठशाला के इस प्राथमिक ड्राफ्ट से गुजरना जरूरी होगा. यह कृति किसी तरह 'आत्मकथा' से निम्नतर या कम उपादेय रचना नहीं है बल्कि वैचारिक स्तर पर उसकी पूर्ववर्ती होने के नाते ज्यादा मौलिक है, भले ही यहां सब कुछ सूत्र रूप में आबद्ध है. जिस तरह श्रीरामकृष्ण देव के आध्यात्मिक सूत्रों को विवेकानंद ने सांस्कृतिक दुनिया में तब्दील कर दिया, वैसा ही गांधी ने ‘आत्मकथा’ सहित अपने बाकी लेखन में ‘हिन्द स्वराज’ का ही विस्तार और प्रक्षेपण किया. इस कृति को पढ़ने से गांधी वांग्मय की बहुत सी समीक्षाओं को पढ़ने और समझने में भी मदद मिलती है. यह पुस्तक एक साथ इतनी सरल और जटिल है कि इसके विरोधाभास को समझने में दुनिया की कई पीढ़ियां व्यतीत हो गईं और शोध अब भी जारी है. गांधी ने अपनी किताब को निर्दोष कहा था. वह निर्दोष तो है लेकिन निर्दोष को पढ़ना और समझना दोषी व्यक्ति की अपराध विवरणिका को पढ़ने से ज्यादा कठिन होता है. इसीलिए ‘हिन्द स्वराज’ की तुलना रूसो के ‘सोशल कांट्रैक्ट’, सेंट इग्नेसियस लोयोला की ‘स्पिरिचुअल एक्सरसाइजेज़’ और बाइबिल में सेंट मैथ्यू और सेंट ल्यूक के कथनों से की गई है.

यह लेख कनक तिवारी की 'फिर से हिन्द स्वराज' नामक पुस्तक का अंश है.