07 मार्च 2009

भ्रष्टाचार की दुनिया

भ्रष्टाचार की दुनिया
अपने चारों ओर नजर घुमाकर देखिए स्थिति कितनी विकराल हो चुकी है। भ्रष्टाचार अब एक सामान्य-सी लगने वाली बात है। अब यह हमारी व्यवस्था का एक अभिन्न अंग है। इसके विरोध में बात करना भी बेमानी लगती है। कहने का तात्पर्य है कि अब हमने इसे स्वीकार कर लिया है। इसके साथ ही दूसरी विशेष बात है कि अब छोटी-छोटी बातों के लिए लड़ाई सड़कों पर पहुंच रही है जिसमें पुलिस मूकदर्शक होती है। राजनेताओं को राज्य की नीति से दूर-दूर तक कोई मतलब नहीं। राजनीति में गुंडे-बदमाशों-मवालियों की हिस्सेदारी बढ़ती जा रही है। उनके लिए रामराज अर्थहीन है। जो जैसा चाहता है वो वैसा ही करवा सकता है। वोट के खातिर राजधर्म भीड़ के पैरों तले रौंद दिया जाता है। प्रजातंत्र भीड़तंत्र में तबदील हो चुका है। हर एक शासक बनने के चक्कर में है, फिर चाहे रास्तें कोई भी हो। हर कोई शासन से कुछ न कुछ लेने के फिराक में घात लगाए बैठा मिल जाएगा। राष्ट्र को कुछ देने का सवाल ही नहीं। देश के लिए त्याग करना अब सपना बन चुका है। किसी भी व्यवस्था को चलाने के लिए कुछ नियम बनाये जाते हैं और उनका पालन अति आवश्यक होता है। परंतु आज नियमों को तोड़ना एक फैशन बन चुका है। ऐसा करने वाले रातोंरात प्रसिद्धि पा जाते हैं। और दुर्भाग्यवश वो आज हमारे जननायक भी बन बैठे हैं। गलत रास्तों पर चलना बहुत आसान हो चुका है। और पकड़े जाने पर उससे बचना तो और भी आसान है। आम जनता देखकर चुप तो रह जाती है मगर फिर यही बात उसके दिल में आग बनकर उसे जलाती रहती है। कुछ एक इसे देखकर स्वयं भी गलत काम के लिए प्रेरित हो जाते हैं। ऊपर से यह जानते हुए भी कि सब को सब कुछ नहीं मिल सकता। हमने सबके अंदर महत्वकांक्षाएं इतनी भर दी हैं, बाजार ने इच्छाएं इतनी बढ़ा दी हैं, कृत्रिम भूख इतनी पैदा कर दी गई है कि हर आदमी हर कुछ चाहता है। क्या यह संभव है? नहीं। एक तरफ महलों के अंदर जीने वाले रईस, रातोंरात नामी बन रहे सितारे, तिकड़म द्वारा करोड़ों कमाते व्यवसायी, भाषा-धर्म-क्षेत्र की भावनाओं पर राजनीति की रोटी सेंकते राजनेता, दूसरी तरफ एक वक्त की रोटी को तरसता आम गरीब परिवार। असमानता इतनी बढ़ गयी है कि संभालना मुश्किल होता जा रहा है। आज की मुक्त अर्थव्यवस्था, खुला बाजार, अति आधुनिक जीवन, प्रतिस्पर्द्धात्मक युग चाहे जो नाम दे दें और चाहे जो कर लें, सफल होते तो गिने-चुने ही हैं। परंतु आग तो सब के दिल में लगा दी गई है। सभी को सब कुछ चाहिए। क्या यह संभव है? नहीं। हम तो यह भी भूल गए कि प्रकृति की बनाई हुई व्यवस्था में भी सब कुछ सबके पास नहीं है। संतुष्टि की भावना को दबा दिया गया। 'संतोष परम सुखम' का ज्ञान बांटने वाले सत्संग भी अपने आप में व्यापार बन गए। भजन गाने वाले भी करोड़ों में खेलने लगे। धर्म का उद्देश्य समाज में व्यवस्था बनाने की जगह अपनी धाक जमाना व भीड़ बढ़ाना हो गया। हर आदमी दौड़ रहा है। उसे रोक कर समझाने वाला कोई नहीं। उसे सपनों की दुनिया में ले जाया गया, बेवकूफ बनाने के लिए। बेवकूफ बनाने वाला स्वयं को बहुत समझदार समझ रहा है। मगर वो भी स्वयं कहीं न कहीं किसी न किसी का शिकार है। अंततः एक ऐसा कालचक्र, जिसके चक्रव्यूह में फंसकर एक ऐसा बवंडर बन चुका है जो पूरी सभ्यता व संस्कृति को नष्ट कर के ही दम लेगा। उपरोक्त बातों का ही नतीजा है जो आम जनता विद्रोह पर उतर आयी है और वो सब कुछ करने लगी है जो लेख के प्रारंभ में दिखाया गया। सवाल यहां सही और गलत का नहीं है। अभी तो यह शुरुआत है। वो दिन दूर नहीं जब लोग राजनेताओं का सड़कों पर चलना मुश्किल कर देंगे। घर के अंदर भी पुलिस उन्हें बचा नहीं पायेगी। चमचमाते फिल्मी सितारों को और रईस के घरों को लूट लिया जायेगा। आग इतनी फैल जायेगी कि सारी कानून व्यवस्थाएं ठप हो जायेंगी। यह कोई अच्छी बात नहीं होगी, न ही इस अव्यवस्था का स्तुतिगान मैं यहां कर रहा हूं। मगर फिर जो दिख रहा है उससे आंखें मूंदना भी ठीक नहीं। वैसे भी हमने जो किया है वही तो हमें लौटकर मिलेगा। लेकिन इसी घटनाक्रम को एक नयी दृष्टि से विश्लेषित करें तो पायेंगे कि असल में प्रकृति के इस नियम का पूरी तरह पालन हो रहा है कि नये के आने के पहले पुराने का नष्ट होना आवश्यक है। पुराने के गये बिना नये का आगमन संभव नहीं। पुरानी पत्तियों के जाने के बाद ही पेड़ों पर नये अंकुर फूटते हैं। विनाश के बाद ही नया सृजन होता है। ठीक इसी तरह उपरोक्त घटनाएं हमारे वर्तमान व्यवस्था के समाप्त होने का एक संकेत है। यह इस बात का प्रतीक है कि वर्तमान को अब जाना होगा। वो जर्जर हो चुका है। सड़-गल रहा है। यह प्रदर्शन करती, आग लगाती, अनियंत्रित भीड़ अपने अंदर से एक नये व्यवस्था को जन्म देगी जो आज की इस अस्तव्यस्तता से छुटकारा दिलायेगी। और फिर इतना यकीन है कि अंत में जो होगा अच्छा ही होगा। इसकी परिणति नये समाज की नयी व्यवस्था के रूप में होगी।
लेखन रामगोपाल जाट 'कसुम्बी 'द्वारा