25 अप्रैल 2010

रामदेव हुंकार भरो


रामदेव हुंकार भरो
भारत का बेडा पार करो
तुम चलो क्षितिज की और संत,
हो जाये घोर निशा का अंत,
पाप, दुराचार का आगे बढ़ संहार करो,
रामदेव हुंकार भरो।
बढ़ रहा उत्पीडन गायों पर ,
सब देख मूक है, इन अन्यायों पर,
इन निरीहों पर अब उपकार करो,
रामदेव हुंकार भरो,
तुम सदा काटते प्राणी रोग,
औषध उपचार से बढ़कर है योग,
अब इस रुग्न स्थिति का उपचार करो,
रामदेव हुंकार भरो,
आदरणीय स्वामी जी को राष्ट्र के स्वाभिमान को जगाने को समर्पित,
रामगोपाल जाट

17 अप्रैल 2010

खोयो ऊंट घडै मे ढूंढै क़सर नहीं है स्याणै में




सुख को कनको उड़तो कीया काण राख दी काणै में
खोयो ऊँट घडै मै ढूडै कसर नहीं है स्याणै में
भूल चूक सब लेणी देणी ठग विद्या व्यापार करयो
एक काठ की हांडी पर ही दळियो सौ बर त्यार करयो
बस पङता तो एक न छोड्यो च्यारू मेर सिवाणै मै
खोयो ऊँट घडै में ढूँढे कसर नहीं है स्याणै मै



डाकण बेटा दे या ले , आ भी बात बताणी के
तेल बड़ा सू पैली पीज्या बां की कथा कहाणी के
भोळा पंडित के ले ले भागोत बांच कर थाणै मे
खोयो ऊंट घडै मे ढूंढै क़सर नहीं है स्याणै में

जका चालता बेटा बांटै ,बै नितकी प्रसिद्ध रैया
बिगड़ी तो बस चेली बिगड़ी संत सिद्ध का सिद्ध रैया
नै भी सिद्ध रैया तो कुण सो कटगो नाक ठिकाणै मे
खोयो ऊंट घडै मे ढूंढै क़सर नहीं है स्याणै में

बडै चाव सूँ नाम निकाल्यो , होगो घर हाळा भागी
लगा नाम कै बट्टो खुद कै लखणा बणरयो निर भागी
तूं उखडन सूँ नहीं आपक्यो थकग्यो गाँव जमाणै में
खोयो ऊंट घडै मे ढूंढै क़सर नहीं है स्याणै में
लेखक - भागीरथ सिंह जी

08 अप्रैल 2010

राजस्थानी रंग की कवितायेँ






मत पूछे के ठाठ भायला


मत पूछे के ठाठ भायला पोळी मै खाट भायला
पनघट पायल बाज्या करती ,सुगनु चुड़लो हाथा मै
रूप रंगा रा मेला भरता ,रस बरस्या करतो बातां मै
हान्स हान्स कामन घणी पूछती , के के गुज़री रात्यां मै
घूंघट माई लजा बीनणी ,पल्लो देती दांता मै
नीर बिहुणी हुई बावड़ी , सूना पणघट घाट भायला
पोळी मै है खाट भायला





छल छल जोबन छ्ळ्क्या करतो ,गोटे हाळी कांचली
मांग हींगलू नथ रो मोती ,माथे रखडी सांकली
जगमग जगमग दिवलो जुगतो ,पळका पाडता गैणा मै
घनै हेत सूं सेज सजाती ,काजल सारयां नैणा मै
उन नैणा मै जाळा पड़गा ,देख्या करता बाट भायला
पोळी मै खाट भायला



अतर छिडकतो पान चबातो नैलै ऊपर दैलो
दुनिया कैती कामणगारो ,अपने जुग को छैलो हो
पण बैरी की डाढ रूपि ना, इतनों बळ हो लाठी मैं
तन को बळ मन को जोश झळकणो ,मूंछा हाली आंटी मै
इब तो म्हारो राम रूखाळो , मिलगा दोनूं पाट भायला
पोळी मै खाट भायला




बिन दांता को हुयो जबाडो चश्मों चढ्गो आख्याँ मै
गोडा मांई पाणी पडगो जोर बच्यो नी हाथां मै
हाड हाड मै पीड पळै है रोम रोम है अबखाई
छाती कै मा कफ घरडावै खाल डील की है लटक्याई
चिटियो म्हारो साथी बणगो ,डगमग हालै टाट भायला
पोळी मै है खाट भायला

07 अप्रैल 2010

माँ



ईश्वर का वरदान है माँ
हम बच्चों की जान है माँ
मेरी नींदों का सपना माँ
तुम बिन कौन है अपना माँ
तुमसे सीखा पढ़ना माँ
मुश्किल कामों से लडना माँ
बुरे कामों में डाँटती माँ
अच्छे कामों में सराहती माँ
कभी मित्र बन जाती माँ
कभी शिक्षक बन जाती माँ
मेरे खाने का स्वाद है माँ
सब कुछ तेरे बाद है माँ
बीमार पडूँ तो दवा है माँ
भेदभाव ना कभी करे माँ
वर्षा में छतरी मेरी माँ
धूप में लाए छाँव मेरी माँ
कभी भाई, कभी बहन, कभी पिता बन जाती माँ
ग़र ज़रूरत पडे तो दुर्गा भी बन जाती माँ
ऐ ईश्वर धन्यवाद है तेरा दी मुझे जो ऐसी माँ
है विनती एक यही तुमसे हर बार बने ये हमारी माँ

06 अप्रैल 2010

कुछ अच्छी कवितायेँ






रात यों कहने लगा मुझसे गगन का चाँद,


आदमी भी क्या अनोखा जीव है ।
उलझनें अपनी बनाकर आप ही फँसता,
और फिर बेचैन हो जगता, न सोता है ।
जानता है तू कि मैं कितना पुराना हूँ?
मैं चुका हूँ देख मनु को जनमते-मरते ।
और लाखों बार तुझ-से पागलों को भी
चाँदनी में बैठ स्वप्नों पर सही करते।
आदमी का स्वप्न? है वह बुलबुला जल का
आज उठता और कल फिर फूट जाता है ।
किन्तु, फिर भी धन्य ठहरा आदमी ही तो
बुलबुलों से खेलता, कविता बनाता है ।
मैं न बोला किन्तु मेरी रागिनी बोली,
देख फिर से चाँद! मुझको जानता है तू?
स्वप्न मेरे बुलबुले हैं? है यही पानी,
आग को भी क्या नहीं पहचानता है तू?
मैं न वह जो स्वप्न पर केवल सही करते,
आग में उसको गला लोहा बनाता हूँ ।
और उस पर नींव रखता हूँ नये घर की,
इस तरह दीवार फौलादी उठाता हूँ ।
मनु नहीं, मनु-पुत्र है यह सामने, जिसकी
कल्पना की जीभ में भी धार होती है ।
वाण ही होते विचारों के नहीं केवल,
स्वप्न के भी हाथ में तलवार होती है।
स्वर्ग के सम्राट को जाकर खबर कर दे
रोज ही आकाश चढ़ते जा रहे हैं वे ।
रोकिये, जैसे बने इन स्वप्नवालों को,
स्वर्ग की ही ओर बढ़ते आ रहे हैं वे।


04 अप्रैल 2010

मेरी प्रिय कवितायेँ



छिप-छिप अश्रु बहाने वालों

छिप-छिप अश्रु बहाने वालों, मोती व्यर्थ बहाने वालों
कुछ सपनों के मर जाने से, जीवन नहीं मरा करता है
सपना क्या है, नयन सेज पर
सोया हुआ आँख का पानी
और टूटना है उसका ज्यों
जागे कच्ची नींद जवानी
गीली उमर बनाने वालों, डूबे बिना नहाने वालों
कुछ पानी के बह जाने से, सावन नहीं मरा करता है
माला बिखर गयी तो क्या है
खुद ही हल हो गयी समस्या
आँसू गर नीलाम हुए तो
समझो पूरी हुई तपस्या
रूठे दिवस मनाने वालों, फटी कमीज़ सिलाने वालों
कुछ दीपों के बुझ जाने से, आँगन नहीं मरा करता है
खोता कुछ भी नहीं यहाँ पर
केवल जिल्द बदलती पोथी
जैसे रात उतार चाँदनी
पहने सुबह धूप की धोती
वस्त्र बदलकर आने वालों, चाल बदलकर जाने वालों
चँद खिलौनों के खोने से, बचपन नहीं मरा करता है
लाखों बार गगरियाँ फ़ूटी,
शिकन न आयी पर पनघट पर
लाखों बार किश्तियाँ डूबीं,
चहल पहल वो ही है तट पर
तम की उमर बढ़ाने वालों, लौ की आयु घटाने वालों,
लाख करे पतझड़ कोशिश पर, उपवन नहीं मरा करता है।
लूट लिया माली ने उपवन,
लुटी ना लेकिन गंध फ़ूल की
तूफ़ानों ने तक छेड़ा पर,
खिड़की बंद ना हुई धूल की
नफ़रत गले लगाने वालों, सब पर धूल उड़ाने वालों
कुछ मुखड़ों के की नाराज़ी से, दर्पण नहीं मरा करता है।



- गोपालदास "नीरज"

संस्कृत विद्यालय का उद्घाटन

श्री बृजमोहन खिचड का स्वागत करते ग्रामीण जन
जसवंत गढ़ सरपंच श्री कन्हैया लाल प्रजापत का स्वागत करते फतु राम दुसाद

संभागीय संस्कृत शिक्षा अधिकारी श्री विष्णु शर्मा का स्वागत कर प्रतीक चिन्ह देते श्री भगवान दास






















राजकीय उच्च प्राथमिक संस्कृत विद्यालय कसुम्बी , जाखला का उद्घाटन समारोह


समारोह में उपस्थित श्री हरजी राम जी बुरडक , लाडनूं प्रधान श्री भोलाराम जी, श्री जगन्नाथ जी बुरडक , श्री चतरा राम जी व् अन्य गणमान्य नागरिक
आगंतुक ग्रामवासी व अतिथि

स्वागत गायन की रस्म





युवा ग्रामवासी



विद्यालय की एक झलक



03 अप्रैल 2010

मेरी कवितायेँ




आग की भीख
धुँधली हुई दिशाएँ, छाने लगा कुहासा
कुचली हुई शिखा से आने लगा धुआँसा
कोई मुझे बता दे, क्या आज हो रहा है
मुंह को छिपा तिमिर में क्यों तेज सो रहा है
दाता पुकार मेरी, संदीप्ति को जिला दे
बुझती हुई शिखा को संजीवनी पिला दे
प्यारे स्वदेश के हित अँगार माँगता हूँ
चढ़ती जवानियों का श्रृंगार मांगता हूँ
बेचैन हैं हवाएँ, सब ओर बेकली है
कोई नहीं बताता, किश्ती किधर चली है
मँझदार है, भँवर है या पास है किनारा?
यह नाश आ रहा है या सौभाग्य का सितारा?
आकाश पर अनल से लिख दे अदृष्ट मेरा
भगवान, इस तरी को भरमा न दे अँधेरा
तमवेधिनी किरण का संधान माँगता हूँ
ध्रुव की कठिन घड़ी में, पहचान माँगता हूँ
आगे पहाड़ को पा धारा रुकी हुई है
बलपुंज केसरी की ग्रीवा झुकी हुई है
अग्निस्फुलिंग रज का, बुझ डेर हो रहा है
है रो रही जवानी, अँधेर हो रहा है
निर्वाक है हिमालय, गंगा डरी हुई है
निस्तब्धता निशा की दिन में भरी हुई है
पंचास्यनाद भीषण, विकराल माँगता हूँ
जड़ताविनाश को फिर भूचाल माँगता हूँ
मन की बंधी उमंगें असहाय जल रही है
अरमान आरजू की लाशें निकल रही हैं
भीगी खुशी पलों में रातें गुज़ारते हैं
सोती वसुन्धरा जब तुझको पुकारते हैं
इनके लिये कहीं से निर्भीक तेज ला दे
पिघले हुए अनल का इनको अमृत पिला दे
उन्माद, बेकली का उत्थान माँगता हूँ
विस्फोट माँगता हूँ, तूफान माँगता हूँ
आँसू भरे दृगों में चिनगारियाँ सजा दे
मेरे शमशान में आ श्रंगी जरा बजा दे
फिर एक तीर सीनों के आरपार कर दे
हिमशीत प्राण में फिर अंगार स्वच्छ भर दे
आमर्ष को जगाने वाली शिखा नयी दे
अनुभूतियाँ हृदय में दाता, अनलमयी दे
विष का सदा लहू में संचार माँगता हूँ
बेचैन जिन्दगी का मैं प्यार माँगता हूँ
ठहरी हुई तरी को ठोकर लगा चला दे
जो राह हो हमारी उसपर दिया जला दे
गति में प्रभंजनों का आवेग फिर सबल दे
इस जाँच की घड़ी में निष्ठा कड़ी, अचल दे
हम दे चुके लहु हैं, तू देवता विभा दे
अपने अनलविशिख से आकाश जगमगा दे
प्यारे स्वदेश के हित वरदान माँगता हूँ
तेरी दया विपद् में भगवान माँगता हूँ


- रामधारी सिंह दिनकर

02 अप्रैल 2010

मेरी प्रिय कवितायेँ





कोशिश करने वालों की

लहरों से डर कर नौका पार नहीं होती,
कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती।
नन्हीं चींटी जब दाना लेकर चलती है,
चढ़ती दीवारों पर, सौ बार फिसलती है।
मन का विश्वास रगों में साहस भरता है,
चढ़कर गिरना, गिरकर चढ़ना न अखरता है।
आख़िर उसकी मेहनत बेकार नहीं होती,
कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती।
डुबकियां सिंधु में गोताखोर लगाता है,
जा जा कर खाली हाथ लौटकर आता है।
मिलते नहीं सहज ही मोती गहरे पानी में,
बढ़ता दुगना उत्साह इसी हैरानी में।
मुट्ठी उसकी खाली हर बार नहीं होती,
कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती।
असफलता एक चुनौती है, इसे स्वीकार करो,
क्या कमी रह गई, देखो और सुधार करो।
जब तक न सफल हो, नींद चैन को त्यागो तुम,
संघर्ष का मैदान छोड़ कर मत भागो तुम।
कुछ किये बिना ही जय जय कार नहीं होती,
कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती।



- हरिवंशराय बच्चन (Harivansh Rai Bachchan) (few people think that it is from सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला")

मेरी प्रिय कविता



मैं अपने इस ब्लॉग पर अगले कुछ दिनों तक अपनी प्रिय कविताओं को पेश करूँगा
उसी श्रंखला मैं आज पेश है यह कविता




विजयी के सदृश जियो रे
- रामधारी सिंह दिनकर (Ramdhari Singh Dinkar)


वैराग्य छोड़ बाँहों की विभा संभालो
चट्टानों की छाती से दूध निकालो
है रुकी जहाँ भी धार शिलाएं तोड़ो
पीयूष चन्द्रमाओं का पकड़ निचोड़ो
चढ़ तुंग शैल शिखरों पर सोम पियो रे
योगियों नहीं विजयी के सदृश जियो रे
जब कुपित काल धीरता त्याग जलता है
चिनगी बन फूलों का पराग जलता है
सौन्दर्य बोध बन नयी आग जलता है
ऊँचा उठकर कामार्त्त राग जलता है
अम्बर पर अपनी विभा प्रबुद्ध करो रे
गरजे कृशानु तब कंचन शुद्ध करो रे
जिनकी बाँहें बलमयी ललाट अरुण है
भामिनी वही तरुणी नर वही तरुण है
है वही प्रेम जिसकी तरंग उच्छल है
वारुणी धार में मिश्रित जहाँ गरल है
उद्दाम प्रीति बलिदान बीज बोती है
तलवार प्रेम से और तेज होती है
छोड़ो मत अपनी आन, सीस कट जाये
मत झुको अनय पर भले व्योम फट जाये
दो बार नहीं यमराज कण्ठ धरता है
मरता है जो एक ही बार मरता है
तुम स्वयं मृत्यु के मुख पर चरण धरो रे
जीना हो तो मरने से नहीं डरो रे
स्वातंत्र्य जाति की लगन व्यक्ति की धुन है
बाहरी वस्तु यह नहीं भीतरी गुण है
वीरत्व छोड़ पर का मत चरण गहो रे
जो पड़े आन खुद ही सब आग सहो रे
जब कभी अहम पर नियति चोट देती है
कुछ चीज़ अहम से बड़ी जन्म लेती है
नर पर जब भी भीषण विपत्ति आती है
वह उसे और दुर्धुर्ष बना जाती है
चोटें खाकर बिफरो, कुछ अधिक तनो रे
धधको स्फुलिंग में बढ़ अंगार बनो रे
उद्देश्य जन्म का नहीं कीर्ति या धन है
सुख नहीं धर्म भी नहीं, न तो दर्शन है
विज्ञान ज्ञान बल नहीं, न तो चिंतन है
जीवन का अंतिम ध्येय स्वयं जीवन है
सबसे स्वतंत्र रस जो भी अनघ पियेगा
पूरा जीवन केवल वह वीर जियेगा!