14 फ़रवरी 2009

शरीर और मन का संतुलन है योग

शरीर और मन का संतुलन है योग- रामगोपाल जाट
योग शब्द के दो अर्थ हैं और दोनों ही महत्वपूर्ण हैं। पहला है- जोड़ और दूसरा है समाधि। जब तक हम स्वयं से नहीं जुड़ते, समाधि तक पहुँचना कठिन होगा।
आष्टांग योग
पतंजलि ने ईश्वर तक, सत्य तक, स्वयं तक, मोक्ष तक या कहो कि पूर्ण स्वास्थ्य तक पहुँचने की आठ सीढ़ियाँ निर्मित की हैं। आप सिर्फ एक सीढ़ी चढ़ो तो दूसरी के लिए जोर नहीं लगाना होगा, सिर्फ पहली पर ही जोर है। पहल करो।
योग दर्शन या धर्म नहीं, गणित से कुछ ज्यादा है। दो में दो मिलाओ चार ही आएँगे। चाहे विश्वास करो या मत करो, सिर्फ करके देख लो। आग में हाथ डालने से हाथ जलेंगे ही, यह विश्वास का मामला नहीं है।योग है विज्ञान : 'योग धर्म, आस्था और अंधविश्वास से परे है। योग एक सीधा विज्ञान है। प्रायोगिक विज्ञान है। योग है जीवन जीने की कला। योग एक पूर्ण चिकित्सा पद्धति है। एक पूर्ण मार्ग है-राजपथ। दरअसल धर्म लोगों को खूँटे से बाँधता है और योग सभी तरह के खूँटों से मुक्ति का मार्ग बताता है।'-ओशोजैसे बाहरी विज्ञान की दुनिया में आइंस्टीन का नाम सर्वोपरि है, वैसे ही भीतरी विज्ञान की दुनिया के आइंस्टीन हैं पतंजलि। जैसे पर्वतों में हिमालय श्रेष्ठ है, वैसे ही समस्त दर्शनों, विधियों, नीतियों, नियमों, धर्मों और व्यवस्थाओं में योग श्रेष्ठ है।आष्टांग योग : पतंजलि ने ईश्वर तक, सत्य तक, स्वयं तक, मोक्ष तक या कहो कि पूर्ण स्वास्थ्य तक पहुँचने की आठ सीढ़ियाँ निर्मित की हैं। आप सिर्फ एक सीढ़ी चढ़ो तो दूसरी के लिए जोर नहीं लगाना होगा, सिर्फ पहली पर ही जोर है। पहल करो। जान लो कि योग उस परम शक्ति की ओर क्रमश: बढ़ने की एक वैज्ञानिक प्रक्रिया है। आप यदि चल पड़े हैं तो पहुँच ही जाएँगे।
बदलो स्वयं को
आपको ईश्वर को जानना है, सत्य को जानना है, सिद्धियाँ प्राप्त करना हैं या कि सिर्फ स्वस्थ रहना है, तो पतंजलि कहते हैं कि शुरुआत शरीर के तल से ही करना होगी। शरीर को बदलो मन बदलेगा। मन बदलेगा तो बुद्धि बदलेगी।
योग वृहत्तर विषय है। आपने सुना होगा- ज्ञानयोग, भक्तियोग, धर्मयोग और कर्मयोग। इन सभी में योग शब्द जुड़ा हुआ है। फिर हठयोग भी सुना होगा, लेकिन इन सबको छोड़कर जो राजयोग है, वही पतंजल‍ि का योग है।इसी योग का सर्वाधिक प्रचलन और महत्व है। इसी योग को हम आष्टांग योग के नाम से जानते हैं। आष्टांग योग अर्थात योग के आठ अंग। दरअसल पतंजल‍ि ने योग की समस्त विद्याओं को आठ अंगों में श्रेणीबद्ध कर दिया है। अब इससे बाहर कुछ भी नहीं है।प्रारम्भिक पाँच अंगों से योग विद्या में प्रविष्ठ होने की तैयारी होती है, अर्थात समुद्र में छलाँग लगाकर भवसागर पार करने के पूर्व तैराकी का अभ्यास इन पाँच अंगों में सिमटा है। इन्हें किए बगैर भवसागर पार नहीं कर सकते और जो इन्हें करके छलाँग नहीं लगाएँगे, तो यहीं रह जाएँगे। बहुत से लोग इन पाँचों में पारंगत होकर योग के चमत्कार बताने में ही अपना जीवन नष्ट कर बैठते हैं।यह आठ अंग हैं- (1) यम (2) नियम (3) आसन (4) प्राणायाम (5) प्रत्याहार (6) धारणा (7) ध्यान (8) समाधि। उक्त आठ अंगों के अपने-अपने उप अंग भी हैं। वर्तमान में योग के तीन ही अंग प्रचलन में हैं- आसन, प्राणायाम और ध्यान।बदलो स्वयं को : आपको ईश्वर को जानना है, सत्य को जानना है, सिद्धियाँ प्राप्त करना हैं या कि सिर्फ स्वस्थ रहना है, तो पतंजलि कहते हैं कि शुरुआत शरीर के तल से ही करना होगी। शरीर को बदलो मन बदलेगा। मन बदलेगा तो बुद्धि बदलेगी। बुद्धि बदलेगी तो आत्मा स्वत: ही स्वस्थ हो जाएगी। आत्मा तो स्वस्थ है ही। एक स्वस्थ आत्मचित्त ही समाधि को उपलब्ध हो सकता है।जिनके मस्तिष्क में द्वंद्व है, वह हमेशा चिंता, भय और संशय में ही ‍जीते रहते हैं। उन्हें जीवन एक संघर्ष ही नजर आता है, आनंद नहीं। योग से समस्त तरह की चित्तवृत्तियों का निरोध होता है- योगश्चित्तवृत्तिनिरोध:। चित्त अर्थात बुद्धि, अहंकार और मन नामक वृत्ति के क्रियाकलापों से बनने वाला अंत:करण। चाहें तो इसे अचेतन मन कह सकते हैं, लेकिन यह अंत:करण इससे भी सूक्ष्म माना गया है।दुनिया के सारे धर्म इस चित्त पर ही कब्जा करना चाहते हैं, इसलिए उन्होंने तरह-तरह के नियम, क्रिया कांड, ग्रह-नक्षत्र और ईश्वर के प्रति भय को उत्पन्न कर लोगों को अपने-अपने धर्म से जकड़े रखा है। पतंजल‍ि कहते हैं कि इस चित्त को ही खत्म करो।योग विश्वास करना नहीं सिखाता और न ही संदेह करना। और विश्‍वास तथा संदेह के बीच की अवस्था संशय के तो योग बहुत ही खिलाफ है। योग कहता है कि आपमें जानने की क्षमता है, इसका उपयोग करो।आपकी आँखें हैं इससे और भी कुछ देखा जा सकता है, जो सामान्य तौर पर दिखता नहीं। आपके कान हैं, इनसे वह भी सुना जा सकता है जिसे अनाहत कहते हैं। अनाहत अर्थात वैसी ध्वन‍ि जो किसी संघात से नहीं जन्मी है, जिसे ज्ञानीजन ओम कहते हैं, वही आमीन है, वही ओमीन और ओंकार है।अंतत : तो, सर्वप्रथम आप अपनी इंद्रियों को बलिष्ठ बनाओ। शरीर को डायनामिक बनाओ। और इस मन को स्वयं का गुलाम बनाओ। और यह सब कुछ करना बहुत सरल है- दो दुनी चार जैसा।योग कहता है कि शरीर और मन का दमन नहीं करना है, बल्कि इसका रूपांतर करना है। इसके रूपांतर से ही जीवन में बदलाव आएगा। यदि आपको लगता है कि मैं अपनी आदतों को नहीं छोड़ पा रहा हूँ, जिनसे कि मैं परेशान हूँ तो चिंता मत करो। उन आदतों में एक 'योग' को और शामिल कर लो और बिलकुल लगे रहो। आप न चाहेंगे तब भी परिणाम सामने आएँगे।
लेखन , संयोजन -- रामगोपाल जाट , कसुम्बी द्वारा