13 फ़रवरी 2009

प्राणायाम

प्राणाकर्षण प्राणायाम (1) ''प्रातःकाल नित्य कर्म से निवृत्त होकर पूर्वाभिमुख पालथी मारकर बैठिए । दोनों हाथ घुटनों पर रखिए । मेरुदण्ड सीधा रखिए । नेत्र बन्द कर लीजिए । ध्यान कीजिए की अखिल आकाश में तेज और शक्ति से ओत-प्रोत प्राण-तत्त्व व्याप्त हो रहा है । गरम भाप के, सूर्य के प्रकाश में चमकते हुए जैसी बादलों शक्ल के प्राण का उफान हमारे चारों ओर उमड़ता चला आ रहा है और उस प्राण उफान के बीच हम निश्चित, शान्त-चित्त एवं प्रसन्न मुद्रा में बैठे हुए हैं ।''
(२) ''नासिका के दोनों छिद्रों से धीरे-धीरे साँस खींचना आरम्भ कीजिए और भावना कीजिए कि प्राण-तत्त्व के उफनते हुए बादलों को हम अपनी साँस द्वारा भीतर खींच रहे हैं । जिस प्रकार पक्षी अपने घोंसले में, साँप अपने बिल में प्रवेश करता है, उसी प्रकार यह अपने चारों ओर बिखरा हुआ प्राण-प्रवाह हमारी नासिका द्वारा साँस के साथ शरीर के भीतर प्रवेश करता है और मस्तिष्क, छाती, हृदय, पेट, आतों से लेकर समस्त अंगों में प्रवेश कर जाता है ।''
(३) ''जब साँस पूरी खींच जाय तो उसे भीतर रोकिये और भावना कीजिए कि-जो प्राण-तत्त्व खींचा गया है, उसे हमारी भीतरी अंग-प्रत्यंग सोख रहे हैं । जिस प्रकार मिट्टी पर पानी डाला जाय तो वह उसे सोख जाती है, उसी प्रकार अपने अंग सूखी मिट्टी के समान हैं और जलरूपी इस खींचे हुए प्राण को सोखकर अपने अन्दर सदा के लिए धारण कर रहे हैं । साथ ही प्राण-तत्त्व में सम्मिश्रित चैतन्य, तेज, बल, उत्साह, साहस, धैर्य, पराक्रम सरीखे अनेक तत्त्व हमारे अंग-प्रत्यंग में स्थिर हो रहे हैं ।''
(४) ''जितनी देर साँस आसानी से रोकी जा सके उतनी देर रोकने के बाद धीरे-धीरे साँस बाहर निकालिए, साथ ही भावना कीजिए कि प्राणवायु का सारतत्त्व हमारे अंग-प्रत्यंगों के द्वारा खींच लिए जाने के बाद अब वैसा ही निकम्मा वायु बाहर निकाला जा रहा है जैसा कि मक्खन निकाल लेने के बाद निस्सार दूध हटा दिया जाता है । शरीर और मन में जो विकार थे, वे सब इस निकलती हुई साँस के साथ घुल गये हैं और धुँए के समान अनेक दोषों को लेकर वह बाहर निकल रहे हैं ।''
(५) ''पूरी साँस बाहर निकल जाने के बाद कुछ देर साँस रोकिए, अर्थात् बिना साँस के रहिए और भावना कीजिए कि अन्दर के जो दोष बाहर निकाले गये थे उनको वापिस न लौटने देने की दृष्टि से दरवाजा बन्द कर दिया गया है और वे बहिष्कृत होकर हमसे बहुत दूर उड़े जा रहे हैं ।''

लोम-विलोम प्राणायाम उपरोक्त प्राणाकर्षण प्राणायाम के बाद लोम-विलोम सूर्य-भेदन प्राणायाम का विधान है, जिसकी पद्धति निम्न प्रकार है ।
(1)किसी शान्त एकान्त स्थान में प्रातःकाल स्थिर चित्त होकर बैठिए । पूर्व की ओर मुख, पालथी मारकर सरल पद्मासन से बैठना, मेरुदण्ड सीधा, नेत्र अधुखुले घुटनों पर दोनों हाथ । यह प्राण- मुद्रा कहलाती है, इसी पर बैठना चाहिए ।
(2)बायें हाथ को मोड़कर तिरछा कीजिए । उसकी हथेली पर दाहिने हाथ की कोहनी रखिए । दाहिना हाथ ऊपर उठाइये । अँगूठा दाहिने नथुने पर और मध्यमा तथा अनामिका उँगलियाँ बायें नथुने पर रखिए ।
(3) बायें नासिका के छिद्र को मध्यमा (बीच की)और अनामिका (तीसरे नम्बर की) उँगली से बन्द की लीजिए । साँस फेफड़े तक ही सीमित न रहे, उसे नाभि तक ले जाना चाहिए और धीरे-धीरे इतनी वायु पेट में ले जानी चाहिए, जिससे वह पूरी तरह फूल जाय ।
(4) ध्यान कीजिए कि सूर्य की किरणों जैसा प्रवाह वायु में सम्मिलित होकर दाहिने नासिका छिद्र में अवस्थित पिंगला नाड़ी द्वारा अपने शरीर में प्रवेश कर रहा है और उसकी ऊष्मा अपने भीतरी अंग-प्रत्यंगों को तेजस्वी बना रही है ।
(5) साँस को कुछ देर भीतर रोकिये । दोनों नासिका छिद्र बन्द कर लीजिए और ध्यान कीजिए कि नाभिचक्र में प्राण-वायु द्वारा एकत्रित हुआ तेज नाभि चक्र में एकत्रित हो रहा है । नाभि स्थल में चीरकाल से प्रसुप्त पड़ा हुआ सूर्यचक्र इस आगत प्रकाशवान् प्राण-वायु से प्रभावित होकर चमकीला हो रहा है और उसकी दमक बढ़ती जा रही है ।
(6) दाहिने नासिका छिद्र को अँगूठे से बन्द कर लीजिए दायाँ खोल दीजिए । साँस को धीरे-धीरे से बायें नथुने से बाहर निकालिए और ध्यान कीजिए कि चक्र को सुषुप्त और धुंधला बनाये रहने वाले कल्मष इस छोड़ी गई साँस के साथ बाहर निकल रहे हैं । इन कल्मषों के मिल जाने के कारण साँस खींचते समय जो शुभ्र वर्ण तेजस्वी प्रकाश भीतर गया था, वह अब मलीन हो गया और होकर साँस के साथ बायें नथुने की इड़ा द्वारा बाहर निकल रहा है ।
(7) दोनों नथुने फिर बन्द कर लीजिए । फेफड़ों को बिना साँस के खाली रखिए । ध्यान कीजिए कि बाहरी प्राण बाहर रोक दिया गया है । उसका दबाव भीतरी प्राण पर बिल्कुल भी न रहने से वह हलका हो गया है । नाभिक चक्र में जितना प्राण सूर्य पिण्ड की तरह एकत्रित था वह तेज-पुंज की तरह ऊपर की ओर अग्नि शिखाओं की तरह ऊपर उठ रहा है । उसकी लपटें पेट के उर्ध्व भाग, फुफ्फुस को वेधती हुई कण्ठ तक पहुँच रही है । भीतरी अवयवों में सुषुम्ना नाड़ी में से प्रस्फुटित हुआ यह गौण तेज अंतःप्रदेश को प्रकाशवान् बना रहा है ।
(8) अँगूठे से दाहिना छिद्र बन्द कीजिए और बायें नथुने से साँस खींचते हुए ध्यान कीजिए कि इड़ा नाड़ी द्वारा सूर्य प्रकाश जैसा प्राण-तत्व साँस से मिलकर शरीर में भीतर प्रवेश कर रहा है और वह तेज सुषुम्ना विनिर्मित नाभि-स्थल के सूर्य चक्र में प्रवेश करके वहाँ अपना भण्डार जमा कर इस प्रकार पाँच अंगों में विभाजित इस प्राणाकर्षण प्राणायाम को नित्य ही जप से पूर्व करना चाहिए । आरम्भ ५ प्राणायाम से किया जाय । अर्थात उपरोक्त क्रिया पाँच बार दुहराई जाय । इसके बाद हर महीने एक प्राणायाम बढ़ाया जा सकता है ।
यह प्रक्रिया धीरे-धीरे बढ़ाते हुए एक वर्ष में आधा घण्टा तक पहुँचा देनी चाहिए'' नाड़ी शोधन प्राणायाम (१) प्रातः काल पूर्व को मुख करके कमर सीधी रखकर सुखासन से, पालथी मार कर बैठिये । नेत्रों को अधखुले रखिए ।
(२) दाहिना नासिका का छिद्र बन्द कीजिए । बाएँ छिद्र से साँस खींचिए और उसे नाभिचक्र तक खींचते जाइए ।
(३) ध्यान कीजिए कि नाभि के स्थान में पूर्णिमा के पूर्ण चन्द्रमा के समान पीतवर्ण शीतल प्रकाश विद्यमान है । खींचा हुआ साँस उसे स्पर्श कर रहा है ।
(४) जितने समय में साँस खींचा गया था, उतने ही समय भीतर रोकिये और ध्यान करते रहिए कि नाभिचक्र में स्थित पूर्ण चन्द्र के प्रकाश को खींचा, प्रकाशवान् बन रहा है ।
(५) जिस नथुने से साँस खींचा था, उसी बायें छिद्र से बाहर निकालिये और ध्यान कीजिए कि नाभिचक्र के चन्द्रमा को छूकर वापिस लौटने वाली प्रकाशवान् एवं शीतल वायु इड़ा नाड़ी की छिद्र नलिका को शीतल एवं प्रकाशवान् बनाती हुई वापिस लौट रही है ।
(६) कुछ देर साँस बाहर रोकिए और फिर उपरोक्त क्रिया आरम्भ कीजिए । बायें नथुने से ही साँस खींचिए और उसी से निकालिए । दाहिने छिद्र को अँगूठे से बन्द रखिए । इसी को तीन बार कीजिए । (७) जिस प्रकार बायें नथुने से पूरक, कुम्भक, रेचक, बाह्य कुम्भक किया था, उसी प्रकार दाहिने नथुने से भी कीजिए । नाभिचक्र में चन्द्रमा के स्थान पर सूर्य का ध्यान कीजिए और साँस छोड़ते समय भावना कीजिए कि नाभि स्थित सूर्य को छूकर वापिस लौटने वाली वायु श्वास नली के भीतर उष्णता और प्रकाश उत्पन्न करती हुई लौट रही है ।
(8) बायें नासिका स्वर को बन्द रखकर दाहिना छिद्र से भी इस क्रिया को तीन बार कीजिए ।
(9) अब नासिका के दोनों छिद्र खोल दीजिए । दोनों से साँस खींचिए और भीतर रोकिए और मुँह खोलकर साँस बाहर निकाल दीजिए । यह विधि एक बार ही करना चाहिए ‍ तीन बार बायें नासिका छिद्र से साँस खींचते और छोड़ते हुए नाभि चक्र के चन्द्रमा का शीतल ध्यान, तीन बार दाहिने नासिका छिद्र से साँस खींचते छोड़ते हुए सूर्य का उष्ण प्रकाश वाला ध्यान, एक बार दोनों छिद्रों से साँस खींचते हुए मुख से साँस निकालने की क्रिया यह सात विधान मिलकर एक नाड़ी शोधन प्राणायाम बनता है ।
प्राणायाम के अभ्यासी के लिए कुछ सामान्य नियमों का पालन बहुत आवश्यक हैः-
1. प्राणायाम शुद्ध वायु में खुले स्थान में करें घर में करें तो कमरे की खिड़कियाँ खुली रहें और स्थान यथा सम्भव शान्त हो ।
2. प्राणायाम के समय शरीर में बहुत अधिक वस्त्र न लादें जायें ।
3. प्राणायाम के बाद वजनदार वस्तुयें न उठायें तथा स्वर्ण, चाँदी आदि धातुओं को छोड़कर कुचालक धातु जैसे लोहे आदि का स्पर्श न करें ।
4. तुरन्त पेट भर भोजन न करें हलका और सात्त्विक आहार ही इन दिनों ग्रहण किया जाए पर पानी बिना प्यास के भी दिन में बार-बार पियें ।
5. ब्रह्मचर्य व्रत का यथा सम्भव अधिक से अधिक पालन करना चाहिए । गायत्री उपासक का संकल्प जब प्राणायाम प्रक्रिया के साथ जुड़ता है, तो ब्रह्माण्ड व्यापी महाप्राण-तत्व उसकी ओर विशिष्ट रूप से प्रवाहित हो उठता है । साधक की आस्था के अनुरूप प्राणानुदान दयामयी की कृपा से प्राप्त होने लगते हैं । इस तरह प्राणायाम के अभ्यास से गायत्री उपासना से उपार्जित प्राण शक्ति की मात्रा द्रुत-गति से बढ़ती है और साधक को लौकिक, भौतिक एव आध्यात्मिक क्षमताओं से विभूषित कर देती है ।
--- रामगोपाल जाट
सोजन्य-- (गायत्री महाविद्या का तत्वदर्शन पृ.12.45)