10 फ़रवरी 2009

अष्टांग योग से मुक्ति

वेदों, शास्त्रों, पुराणों और योगदर्शन में मुक्ति यानी मोक्ष के बारे में विस्तार से वर्णन किया गया है। योग-दर्शन के अनुसार जीवन में अष्टांग योग यानी यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, ध्यान, धारणा व समाधि के सम्यक पालन से मुक्ति मिलती है। जो मनुष्य ईश्वर की उपासना करके अविा, अज्ञानता और दूसरे दुखों से छूटकर सत्य और धर्म का पालन करता है, वह आत्मिक उन्नति करके मुक्ति को प्राप्त हो जाता है। योग दर्शन के मुताबिक मोक्ष प्राप्ति में पंच-कलेश यानी पांच तरह के दुखों का खात्मा होना बहुत जरूरी है। ये पांच दुख-अविा, अस्मिता, राग, द्वेष और अभिनिवेश हैं। इनसे छुटकारा पाए बगैर मुक्ति नहीं मिल सकती। इसके अलावा दुख में सुख यानी विषय तृष्णा, काम, क्रोध, लोभ, मोह, शोक,र् ईष्या, द्वेष आदि दुख रूप व्यवहार में सुख की आशा करना, ब्रह्मचर्य, निष्काम, शम, संतोष, विवेक, प्रसन्नता, प्रेम व मित्रता आदि को दुख मानना भी शास्त्रों में अविा माना गया है। इस अविा की वजह से ही मन में विकार, विषयों की उत्प8ाि होती रहती है। इसमें मनुष्य धन, परिवार, समाज व सम्मान (प्रतिष्ठा) को ही जीवन का लक्ष्य मानने लगता है। उसमें सदाचार की भावना, परोपकार, उदारता, मनुष्यता और तितिक्षा सहने की शक्ति समाप्त हो जाती है-ईश-कृपा न प्राप्त होने का यह भी एक महत्वपूर्ण कारण है। वेदों में मोक्ष का मतलब आत्मा का परमात्मा में विलीन होना बताया गया है यानी आवागमन के बंधन से जीव को छुटकारा मिलना मुक्ति है। न्याय शास्त्र के मुताबिक जब अविा का नाश हो जाता है, तब जीव के सारे दोष नष्ट हो जाते हैं। इससे अधर्म, अन्याय, विषयों के प्रति लगाव तथा दूसरी वासनाएं खत्म हो जाती हैं। इनके नष्ट होने से पुन: जन्म नहीं होता। इससे दुखों का अभाव हो जाता है। दुखों का अभाव होने से जीव परमानंद को यानी मोक्ष को प्राप्त हो जाता है। आम धारणा के विपरीत मोक्ष प्राप्ति के बाद जीव की स्थिति के बारे में वैदिक ऋषि वेद, शास्त्रों में कहते हैं-मोक्ष यानी परमानंद की प्राप्ति के बाद जीव मनुष्य के अलावा दूसरे लोक-लोकांतरों में भ्रमण करता रहता है। उसके लिए परमात्मा के बंधन जैसी कोई बात नहीं होती। इसलिए बंधन से मुक्ति को ही मोक्ष माना गया है। मोक्ष के लिए ईश-कृपा को बहुत जरूरी माना गया है। इसलिए मनुष्य को प्रतिदिन कम से कम एक घंटे शुध्द मन व चित्त से ईश्वर का ध्यान करना चाहिए। इससे हृदय शुध्द, पवित्र और संकल्पशाली बनता जाता है। ईश-कीर्तन यानी स्तुति, प्रार्थना और उपासना करने वाला व्यक्ति ईश्वर के पास जल्दी पहुंच जाता है क्योंकि इससे उसके मन के विकार और विषय मिटकर वहां ईश्वर की मूर्ति यानी ईश्वरभाव प्रतिष्ठित हो जाता है। पुराणों में बताया गया है कि जो व्यक्ति परोपकार, तीर्थाटन, मंदिर निर्माण, हवन-यज्ञ आदि करता है, वह भगवान का अत्यंत प्रिय होता है। इसके अलावा जो व्यक्ति दोनों समय संध्या, कीर्तन, वंदन, गुरुसेवा, माता-पिता की सेवा, सत्याचरण, ब्रह्मचर्य का पालन और जगत की भलाई के लिए लगा रहता है, वह भी प्रभु की कृपा जल्दी प्राप्त कर लेता है। भागवत के मुताबिक वह मनुष्य बड़ा भाग्यशाली है जिसने अपना जीवन हरिकीर्तन के लिए निश्चित कर लिया है। ऐसा मनुष्य हमेशा के लिए आवागमन के चक्करों से छूटकर, प्रभु में विलीन हो जाता है।