16 फ़रवरी 2009



योग शास्त्र की रचना महर्षि पतंजलि ने की है, उनके अनुसार योग को अपनाकर आध्यात्मिक उन्नति, ज्ञान, सुख तथा शांति को पाया जा सकता है। चित्त की वृत्तियों का शमन ही योग है। इस प्रकार हम देखें तो पाएंगे कि योग आनंदमय जीवन जीने की एक कला है। पतंजलि ने योग के आठ अंग बताए हैं-
1। यम
2। नियम3। आसन'4। प्राणायाम5। धारणा6। प्रत्याहार7। ध्यान
समाधि
योग के आठ अंगों में से यम पहला है, यदि इन आठों में से किसी भी एक को छोड़ दिया जाए तो योगासन अधूरा माना जाता है-यम पांच हैं- अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रहअहिंसा: अहिंसा का अर्थ है, कभी भी किसी प्राणी का अपकार न करना, कष्ट न देना। अहिंसा व हिंसा का मुख्य स्त्रोत बुद्धि है। बुद्धि ही भले-बुरे का निर्णय करके वचन तथा कर्म में मन को तैयार करती है। अत: मन, वचन तथा कर्म में हिंसा को पूरी तरह छोड़ देना ही पूर्ण अहिंसा है।आत्मवत् सर्वभूतेषु (सबको अपने जैसा समझना) ऐसा साक्षात्कार हो जाने पर ही योगी पूर्ण अहिंसक बनता है। ऐसी अनुभूति से जब जीवन रंग जाता है, तब किसी प्राणी के द्वारा कष्ट, अपमान व हानि पाकर भी बुद्धि में उत्तेजना नहीं होती, तभी व्यक्ति को अहिंसावादी कहा जा सकता है।सत्य: जो व्यक्ति मन, वचन कर्म से समान रहे, अर्थात् एक जैसी वाणी और मन का व्यवहार करना, जैसा देखा और अनुमान लगाकर बुद्धि से निर्णय किया अथवा जैसा सुना वैसा ही वाणी से कह दिया और मन में धारण किया।अपने ज्ञान के अनुसार, दूसरे व्यक्ति को ज्ञान करवाने में कहा हुआ वचन यदि धोखा देने वाला या भ्रम में डालने वाला न होकर ज्ञान करवाने वाला हो, तभी सत्य होता है। यह वचन उपकारी भी होना चाहिए। सब प्रकार से परीक्षा करके सर्वभूत हितकारी वचन बोलना ही सत्य है।अस्तेय: दूसरों के पदार्थों की ओर ध्यान न देना, उन्हें चुराने का विचार मन में न लाना तथा धन, भूमि, संपत्ति, नारी विद्या आदि किसी भी ऐसी वस्तु, जिसे अपने पुरुषार्थ से अर्जित नहीं किया या किसी ने हमें भेंट या पुरस्कार में नहीं दिया, को लेने का विचार स्वप्न में भी नहीं आने देना, अस्तेय का पूर्ण स्वरूप कहलाता है। गृहस्थ यदि अति तृष्णा न करे, तो इस दोष से काफी हद तक मुक्त हो सकता है।ब्रह्मचर्य: प्रभु का ध्यान करते हुए अपनी समस्त इन्द्रियों सहित गुप्तेन्द्रियों पर संयम रखना, विशेषकर मन, वाणी तथा शरीर से यौन सुख प्राप्त न करना ब्रह्मचर्य है।सभी इन्द्रियों पर यम निमयों के आचरण द्वारा अधिकार प्राप्त करके आत्मोत्थान का प्रयत्न करना, असत्य आचरण, चोरी, मांस भक्षण, खट्टे-तीखे पदार्थ खाना, मादक द्रव्य का सेवन करना, जुआ खेलना, काम क्रोध, लोभ, मोह, मैथुन आदि का त्याग करना ब्रह्मचर्य है।अपरिग्रह: ज्ञानेन्द्रियों तथा कर्मेन्द्रियों के विषय रूप भोगों के उपयोग में या विषयों का उपार्ज़न व संग्रह करने में, उनकी रक्षा करने, उन्हें स्थिर रखने में हिंसा तथा उनकी क्षीणता में होने वाले कष्टों को देखकर उन पर विचार करके उन्हें मन, वचन, कर्म से स्वीकार न करना अपरिग्रह कहलाता है।इस प्रकार गुण-दोष की निर्णायक बुद्धि जब इन विषयों को भोगने में पाप तथा हिंसा का निश्चय करती है, तभी अपरिग्रह होता है, अन्यथा यह परिग्रह है, विषय उपभोग है, विषय सेवन है।

योग के आठ अंगों में नियम दूसरी पायदान है। योगासन के अन्य अंगों की तरह नियम भी सर्वाधिक महत्वपूर्ण है।नियम का पालन व्यक्ति को स्वयं करना पड़ता है, ये भी पांच प्रकार के हैं- शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय, ईश्वर प्रणिधान।
यम दूसरों के साथ व्यवहार से संबंधित हैं और नियम निज के पालन के लिए हैं।
शौच : शरीर तथा मन की पवित्रता शौच है। पवित्रता दो प्रकार की होती है, बाह्म और आंतरिक। मिट्टी, उबटन, त्रिफला साबुन आदि लगाकर जल से स्नान करने से त्वचा एवं अंगों की शुद्धि होती है और काम, क्रोध, लोभ, मोह अहंकार आदि को त्याग कर मन शुद्ध होता है सत्याचरण से।
ईर्षा, द्वेष, तृष्ण, अभियान, कुविचार व पंच क्लेशों को छोड़ने से तथा दया, क्षमा, नम्रता, स्नेह, मधुर भाषण तथा त्याग से आंतरिक पवित्रता आ जाती है।
संतोष : शरीर के पुरुषार्थ द्वारा प्राप्त धन से अधिक की लालसा न करना। न्यूनाधिक की प्राप्ति पर शोक या हर्ष न करना संतोष है। अपने कर्तव्य का पालन करते हुए जो प्राप्त हो, उसी से संतुष्ट रहना या प्रभु की कृपा से जो मिल जाए, उसे ही प्रसन्नतापूर्वक स्वीकार करना संतोष है। जब विचार पूर्वक अपने भाग्य पर विश्वास दृढ़ होगा, तभी संतोष होता है।
तप : सुख-दु:ख, सर्दी-गर्मी, भूख-प्यास आदि को सहन करते हुए मन तथा शरीर को साधना तप है। कुवृत्तियों का सदा निवारण करते रहना, मान, अपमान, हानि, निंदा से भी बुद्धि का संतुलन न खोना, हिंसा, असत्य, चोरी, व्यभिचार, परिग्रह आदि यम नियमों की विपरीत भावनाओं का दमन करना, विषयों में दौड़ने वाली इन्द्रियों और मन का दमन करते रहना तथा आसक्तियों से स्वयं को हटाए रखना तप है।
स्वाध्याय : अपनी रुचि तथा निष्ठा के अनुसार विचार शुद्धि और ज्ञान प्राप्त करने के लिए सामाजिक, वैज्ञानिक तथा आध्यात्मिक विषयों का नित्य नियम से पठन करना, मनन करना और सत्संग तथा विचारों का अदान-प्रदान करना स्वाध्याय कहलाता है।
ईश्वर प्रणिधान : बुद्धि, नम्रता, भक्ति विशेष तथा पूर्ण तन्मयता के साथ प्रत्येक कर्म को फल सहित, परमात्मा को निर्मल भाव से सानंद समिर्पत करना ईश्वर प्रणिधान कहलाता है।
कर्म किए बिना कोई प्राणी रह नहीं सकता। जो भी कर्म मैं कर रहा हूं, वह प्रभु के आदेशानुसार कर रहा हूं। इसमें कर्तापन में अभियान त्याग का भाव ही प्रबल रहता है।
इस प्रकार उपासक अपनी देह आदि से किए गए सभी कर्म तथा फलाफल प्रभु को सहर्ष अर्पित करता है। फलत: दंभ के कलुष से व्यक्ति का अंत:करण सर्वदा रहित हो जाता है। ये सब शुद्ध मन से ही संभव है।