16 फ़रवरी 2009

भ्रष्टाचार का सच -- लोकतंत्र के लिए खतरा

भ्रष्टाचार का सच -- लोकतंत्र के लिए खतरा
भ्रष्टाचार हमारे जीवन का हिस्सा बन गया है। ज्यादातर लोग इसके आदी हो गए हैं। यह खतरे का संकेत है। इससे भ्रष्टाचार के दंड से बचने की प्रवृत्ति बढ़ेगी और भ्रष्टाचार को स्वीकृति देने की संस्कृति और मजबूत होगी। भ्रष्टाचार का खामियाजा सबसे अधिक गरीब और कमजोर वर्ग के लोगों को भुगतना पड़ता है।गरीबी उन्मूलन की योजनाओं का इससे बंटाढार हो जाता है, कानून एवं न्याय का राज खतरे में पड़ जाता है। नागरिक जिम्मेदारियों और मर्यादित आचरण के आदर्शों की जगह संकीर्ण स्वार्थों पर आधारित दृष्टिकोण हावी हो जाते हैं। आदर्शवादी युवा पीढ़ी के लिए यह जहर का काम करता है।इस संदर्भ में बीपीएल परिवारों और ग्यारह बेसिक सर्विसेज के अध्ययन पर
भ्रष्टाचार का सबसे दुखद पहलू तो यह है कि एक तरफ वर्षों से इसका अध्ययन हो रहा है, लेकिन दूसरी ओर यह मर्ज बढ़ता ही जा रहा है। बैड गवर्नेंस की हम जितनी आलोचना करते हैं, शासन में बैठे अधिकारी भ्रष्टाचार को उतने ही उत्साह से गले लगाते हैं
आधारित सीएमएस ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल इंडिया की रिपोर्ट विचलित करने वाली है। यह रिपोर्ट बताती है कि कल्याण योजनाओं से लाभान्वित होने वाले एक तिहाई बीपीएल परिवारों को कानूनसम्मत सेवाएँ हासिल करने के लिए रिश्वत देना पड़ती है। लगभग सभी राज्यों में अन्य विभागों की अपेक्षा पुलिस तंत्र सर्वाधिक भ्रष्ट है।यह अत्यंत निंदनीय स्थिति है और इसका प्रभाव सामाजिक आधार को ही खोखला कर रहा है। भ्रष्टाचार का सबसे दुखद पहलू तो यह है कि एक तरफ वर्षों से इसका अध्ययन हो रहा है, लेकिन दूसरी ओर यह मर्ज बढ़ता ही जा रहा है। बैड गवर्नेंस की हम जितनी आलोचना करते हैं, शासन में बैठे अधिकारी भ्रष्टाचार को उतने ही उत्साह से गले लगाते हैं। कानून का शासन कायम करना मुश्किल हो गया है इसलिए स्टिंग ऑपरेशन भी बेअसर साबित हो रहे हैं।'कैश फॉर वोट' प्रकरण की अभी भी जाँच चल रही है मगर झामुमो रिश्वतकांड में शामिल सांसद विशेषाधिकारों की आड़ में भ्रष्टाचार के आरोपों से सुप्रीम कोर्ट द्वारा मुक्त किए जा चुके हैं। सांसदों को विशेषाधिकार प्रदान करने वाले कानूनों में संशोधन क्यों नहीं किया जाता क्योंकि किसी भी पार्टी का सांसद धन प्राप्ति के स्रोतों की बारीकी से जाँच का सामना करना नहीं चाहता है और ऐसे ज्यादातर स्रोत संदेहास्पद होते हैं जिन्हें सांसदों का संरक्षण प्राप्त होता है।मुख्य निगरानी आयुक्त सरकारी अधिकारियों से जुड़े भ्रष्टाचार के मामलों को लगातार प्रकाश में लाते रहे हैं। कुछ छोटे अधिकारियों के खिलाफ कभी-कभार कार्रवाई भी हो जाती है मगर अधिकांश मामलों में बड़े अधिकारियों पर हाथ नहीं डाला जाता। संयुक्त सचिव और बड़े पदों पर आसीन अधिकारियों या मंत्री के खिलाफ कार्रवाई के लिए उनके ऊपर बैठे मंत्रियों या अधिकारियों की पुर्वानुमति आवश्यक है।अपने अधीनस्थों के खिलाफ उच्चाधिकारियों की पूर्वानुमति मिल जाए, ऐसा दुर्लभ ही होता है। हाल की एक मीडिया रिपोर्ट तो बताती है कि भ्रष्टाचार में लिप्त रहे किसी अधिकारी के खिलाफ रिटायरमेंट के दस वर्षों बाद तक कार्रवाई करने के लिए उच्चाधिकारी की पूर्वानुमति आवश्यक बनाने के बारे में सरकार विचार कर रही है। तब तक तो सब कुछ खत्म हो जाएगा।भ्रष्टाचार पर संयुक्त राष्ट्र ने एक सम्मेलन आयोजित किया था। सम्मेलन के अंतिम दिन भारत इसमें शामिल हुआ। सम्मेलन ने यह जरूरत बताई कि भ्रष्टाचार निरोधक कानूनों को राष्ट्रीय कानून का दर्जा मिलना चाहिए। इस सिफारिश पर भारत ने भी मोहर लगाई। सम्मेलन के 18 महीने बाद भी भारत सरकार ने इस दिशा में कोई प्रक्रिया शुरू नहीं की है।नतीजतन भारत भ्रष्टाचार के संदिग्ध आरोपियों के प्रत्यर्पण की माँग नहीं कर सकता, विदेशों में गुप्त रूप से जमा निजी या सार्वजनिक धन को जब्त करने या काले धन को सफेद करने के स्रोतों की जाँच करने की माँग नहीं कर सकता है। भ्रष्टाचार के खिलाफ कठोर एवं प्रभावी कार्रवाई करने में किसी की दिलचस्पी दिखाई नहीं देती।उच्चाधिकारी अधिकार प्राप्त न होने और सहयोग न मिलने का रोना रोते हैं क्योंकि भ्रष्टाचार के जरिए प्राप्त धन को मिल-बाँटकर खाने की व्यवस्था में इससे व्यवधान उपस्थित होगा।भ्रष्टाचार खत्म करने के लिए अनगिनत आयोग और समितियाँ गठित की जा चुकी हैं, मगर केंद्र और अधिकांश राज्य सरकारों ने पुलिस व्यवस्था में सुधार के लिए कोई पहल नहीं की। एक निश्चित समय सीमा के भीतर पुलिस व्यवस्था में सुधार के लिए सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट निर्देश जारी किए मगर इससे भी बात नहीं बनी।
केंद्र कहता तो है कि वह सुधार के पक्ष में है मगर इस मामले में नेतृत्वविहीन दिखता गृह मंत्रालय बिलकुल निष्क्रिय नजर आता है। गृह मंत्रालय का तर्क है कि पुलिस और खुफिया एजेंसियाँ राज्य सरकारों के अधीन हैं और इन मामलों में गृह मंत्रालय हस्तक्षेप नहीं कर सकता है
पुलिस और खुफिया एजेंसियों का राजनीतिकरण हो चुका है, राजनीति के अपराधीकरण की प्रक्रिया तेज है। अपराधों के राजनीतिकरण की प्रक्रिया में भी तेजी आई है। फौजदारी कानून व्यवस्था छिन्न-भिन्न हो चुकी है। परिणामस्वरूप न्यायालय की बजाय अन्य स्रोतों से न्याय प्राप्त करने की प्रवृत्ति बढ़ गई है।सीबीआई और अन्य खुफिया एजेंसियाँ भी राजनीतिक दखलंदाजी की शिकार हैं। इसी कारण हम आतंकवाद का सामना सफलतापूर्वक नहीं कर पा रहे हैं। अत्यंत कठोर कानूनों के प्रति समाज में आक्रोश पैदा हो जाता है क्योंकि इनका दुरुपयोग गरीबों और कमजोरों के खिलाफ किया जाता है।कोई भी व्यक्ति ऐसा राज्य नहीं चाहता जहाँ सुरक्षा एजेंसियाँ हावी हों। साथ ही वह मानवाधिकारों में कोई कमी भी नहीं चाहता जबकि यह सच है कि अगर विद्यमान कानूनों को भी पूरी तरह लागू किया जाए तो वे प्रभावी होंगे। मगर ऐसा नहीं हो सकता क्योंकि इन्हें लागू करने वाले तंत्र की धार को राजनीतिक रूप से कुंद कर दिया गया है।हाल ही में अहमदाबाद, बेंगलुरू, जयपुर और अन्य स्थानों पर बम विस्फोटों की जाँच में मिले सबूतों से पता चला है कि यह 2002 में हुए गुजरात दंगों के प्रतिशोध में किए गए हैं। यदि यह सच है कि यह कमजोर राज्यों में बढ़ते व्यक्तिगत प्रतिशोध की भावना का संकेत हैं तो इस मामले में गुजरात दंगों के समय नरेंद्र मोदी के उस संदेश को याद करें जिसमें उन्होंने कहा था- यदि आप शांति चाहते हैं तो न्याय की बात मत कीजिए।दूसरी तरफ दंगा पीड़ितों में से कुछ लोग कहने लगे हैं कि जब तक न्याय नहीं होगा तब तक शांति नहीं होगी। गुजरात पुलिस पर भारी राजनीतिक दबाव था लेकिन मूल न्यायिक प्रक्रिया को भी ताक पर रख दिया गया। इस तरह के आचरण को कुछ बड़े लोगों ने उचित भी ठहरा दिया।जाँच आयोगों का औचित्य भी संदेह के घेरे में है। 1992 के बाबरी मस्जिद कांड की जाँच कर रहे लिब्रहान आयोग की समय-सीमा 47वीं बार बढ़ाई गई। गुजरात में नानावती आयोग को भी पाँचवीं बार मोहलत मिली। हमें लोकतंत्र को बचाने के लिए तुरंत कुछ करना इस विषय पर गंभीर चिंतन और एक सामूहिक प्रयास की आवश्यकता है नही तो एक दिन हमारा लोकतंत्र खतरे में पड़ जाएगा